. *१७ मार्च हुताशनी पूर्णिमा गुरुवार को ढुण्डाराक्षसी पूजा के साथ भद्रा उपरांत रात्रि १.१० बजे बाद होलिका दहन करना श्रेयस्कर होगा।*
*होलिका दहन भद्रा पुच्छ काल में करना तभी शास्त्र सम्मत और श्रेयस्कर है जब भद्रा का आरम्भ दिनार्ध से पूर्व हो रहा हो। भद्रा पुच्छ काल का निर्धारण पंचांग भेद से प्रथक् प्रथक् है। विष्टि करण (भद्रा) के मान को त्रैराशिक विधि से चार भागों (प्रहरों) में विभाजन कर तीसरे प्रहर की अन्तिम तीन घटी भद्रा पुच्छ और चौथे प्रहर के प्रारम्भ की पांच घटी भद्रा मुख कहलाती हैं। इस वर्ष इस सिद्धांत की आवश्यकता नहीं है अगले वर्ष इसका उपयोग सार्थक सिद्ध होगा।*
होलिका दहन पर निर्णय विशेष निवेदन:-
*होलिका दहन अर्द्धरात्रि बाद।*
*रात्रि में भद्रा उपरांत लगभग १.१० बाद ही उपयुक्त है।*
इस वर्ष और अगले वर्ष होलिका दहन निर्णय में पंचांगीय वैमत्य स्पष्ट है। इस विषय में बाबा विश्वनाथ की धरा श्रीकाशी जी के कुछ पंचांगों से निकला हुआ निर्णय अधिक समीचीन और शास्त्रीय है। ...
" *भद्रोत्तरम् भद्रान्ते वा होलिका दीपनम्* "
आदि आदेशों की पालना पूरे भारत वर्ष को करनी चाहिए, विश्व के सभी सनातनियों को करनी चाहिए। क्योंकि ऐसी ही आज्ञा धर्मग्रंथों की भी है।
कतिपय सम्माननीय पंचांग निर्माण कर्ताओं ने होलिका दहन निर्णय में *प्रदोषे, निशामुखे, निशीथ पूर्वे, निशीथोपरान्ते, भद्रापुच्छे* आदि आदेश किए हैं और उनमें *भद्रापुच्छे* की विशेष अनुशंसा की है जबकि होना चाहिए था *भद्रान्ते*।
भद्रामुख को छोड़कर भद्रा पुच्छ में होलिका दहन के कुछ विशेष आदेश नियम हैं।
*विष्टि नाम के करण को ही भद्रा कहते हैं। सात चर और चार स्थिर करण होते हैं। एक तिथि में दो करण होते हैं। एक चान्द्रमास की आठ तिथियों में भद्रा (विष्टि करण) होती है। स्थूल रूप से बारह घंटे का भद्रा काल होता है जिसमें शुभ कार्य पूर्णतया वर्जित हैं। भद्रामुख काल पांच घटियों का अशुभ और भद्रापुच्छ काल तीन घटियों का शुभ कहा गया है। आठों तिथियों के अलग अलग प्रहरों में भद्रा मुख-पुच्छ आते हैं।*
होलिका हुताशनी पूर्णिमा के पूर्वार्द्ध में हमेशा भद्रा दोष रहता है।
*मेरी लघुमीमांसा मति से इस वर्ष भद्रापुच्छकाल में होलिका दहन समुचित नहीं है। अगले वर्ष निश्चित ही भद्रा पुच्छ काल में होलिका दहन किया जाएगा ऐसा पूर्ण विश्वास है। वैसे आगे समय और परिस्थितियां निर्णायक होंगी।*
इस वर्ष भद्रा पुच्छ काल में होलिका दहन न करने के शास्त्रीय आदेश विचारणीय हैं ...
*१. परदिने प्रदोष भद्रा स्पर्शाभावे पूर्वदिने प्रदोषे भद्रासत्वे यदि पूर्णिमा परदिने सार्धत्रियामा ततोधिका वा...... निशीथोत्तरं भद्रासमाप्तौ भद्रामुखं त्यक्त्वा भद्रायामेव।*
आदि वाक्य यहां समीचीन नहीं हैं क्योंकि अगले दिन साढ़े तीन प्रहर पूर्णिमा नहीं है। अतः *भद्रोत्तरे* ही ठीक है।
*२. दिनार्धात् परतोऽपि स्यात् फाल्गुनी पूर्णिमा यदि।*
*रात्रौ भद्रावसाने तु होलिका दीप्यते तदा।।*
अर्थात् दिनार्ध के बाद हुताशनी पूर्णिमा आती हो तो रात्रि में भद्रा के बाद ही होलिका दहन करें।
*३. "भद्रा पुच्छे" का परिहार वाक्य तो पूर्णिमा की सम्पूर्ण रात्रि भद्रा दोष हो तो ग्रहण करना चाहिए।*
और भी अनेकों वाक्य हैं जो इस वर्ष भद्रा उपरान्त ही होलिका दहन का निर्णय करते हैं।
*अतः इस बार अपने अपने क्षेत्र के मान्यता प्राप्त पंचांग के अनुसार १७ मार्च गुरुवार की रात एक बजे बाद जब भी भद्रा समाप्त हो जावे उसके बाद ही होलिका दहन करें।*
स्वकीय राष्ट्र के रक्षार्थ भद्रा में कदापि होलिका दहन न करें। उक्तं च...
*भद्रायां दीपिता होली राष्ट्रभङ्गं करोति वै।*
*भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।*
*भद्राशून्यायां होलिकादाह:।*
होलिका दाह के समय वायु प्रवाह से भी विशेष फल शास्त्रों में कहे हैं।...
*पूर्वे वायौ होलिकायां प्रजाभूपालयो: सुखम्।...*
*अर्थात् अपने अपने नगर में होलिका दहन के समय यदि पूरब की ओर हवा का प्रवाह अर्थात् होली की झऴ (लौ) पूर्वी हो तो उस नगर के राजा और प्रजा दोनों में सुखी रहते हैं। दक्षिण की ओर रुख हो तो नगर में दुर्भिक्ष और पलायन हो। पश्चिम की ओर रुख हो तो पशुओं के लिए अच्छा हो। उत्तर की ओर हो तो अन्न धन की अधिकता हो। ईशान कोण की ओर रुख हो तो अनावृष्टि हो। अग्नि कोण की ओर रुख हो तो रोग फैलें। नैर्ऋत्य कोण की ओर रुख हो तो अतिवृष्टि हो। वायव्य कोण की ओर रुख हो तो प्राकृतिक आपदाओं की भरमार हो और सीधे ऊपर की ओर झऴ जाए तो राजा उच्च वर्ग और सम्पन्न लोगों को कष्ट होता है।*