कौन होते हैं पत्रकार?

कौन होते हैं पत्रकार? कहां से आते हैं? क्या यह भी आम इंसान होते हैं? क्या इनके ऊपर भी पारिवारिक जिम्मेदारी होती है? क्या इनके भी मां-बाप, भाई- बहन, बीवी- बच्चे होते हैं? क्या यह भी अपने परिवार से इतना लगाव रखते हैं जितना कि आम आदमी? अगर हां, तो फिर क्यों यह दिन रात इतना जोखिम उठाते हैं ? क्राइम की खबरें हो या राजनैतिक, शहर में कहीं भी कोई कार्यक्रम हो या किसी भी बड़े मुद्दे पर बहस, हर जगह, हर समय आंधी हो, बारिश हो, गर्मी हो या सर्दी हो पहुंच जाते हैं सच और झूठ का पर्दाफास करने, दूसरे के फटे में अपनी टांग अडाने। चाहे कुछ भी हो जाए, हर संभव पत्रकार कोशिश करता है की आम जनता की आवाज को बुलंद कर राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों तक पहुंचाएं। 


 


दूसरे के दुख में दुखी और सुख में सुखी होता है एक पत्रकार। नेता हो, अधिकारी हो या आम जनता सभी जगह अपनी पहुंच बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास करता है पत्रकार। किसी गरीब के साथ अन्याय हो रहा हो तो डटकर उसके साथ खड़ा होता है एक पत्रकार। किसी पीड़ित को न्याय ना मिल रहा हो तो अधिकारी व बड़े-बड़े नेताओं तक उस की समस्याओं को पहुंचाने का माध्यम बनता है पत्रकार। हर किसी के सुख-दुख का साथी होता है पत्रकार। लेकिन जब बाद अपने पर आती है तब समाज की इस भीड़ में खुद को अकेला पाता है पत्रकार।


 


   वैसे तो पत्रकारिता को देश का चौथा स्तंभ मानते हैं, लेकिन आज सामाजिक व राजनीतिक साथ ना मिलने के कारण यह स्तंभ अपने आप में कमजोर होता जा रहा है। समाज की लड़ाई लड़ते - लड़ते खुद कितनों का दुश्मन बन जाता है पत्रकार उसे खुद को पता भी नहीं होता, पत्रकारों पर आए दिन हमले किए जा रहे है, पुलिस प्रशासन भी नहीं सुनता, बल्कि कई बार देखा गया है कि कवरेज करने वाले पत्रकारों पर पुलिस उल्टे-सीधे मुकदमे लगाकर जेल भेज देती है या मुकदमे लगाने की धमकी देती है। गाज़ियाबाद में पत्रकार पर हुए हमले में भी पुलिस की बड़ी लापरवाही साफ दिखाई दे रही है अगर पुलिस पत्रकार विक्रम जोशी की तहरीर पर विपक्षियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार कर लेती तो आज उन बदमाशों के हौसले इतने बुलंद ना होते और आज पत्रकार विक्रम जोशी हमारे व अपने परिवार के साथ होते।


 


 राजनैतिक स्तर पर देखा जाए तो आज तक किसी भी सरकार ने पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कोई कानून जाने व्यवस्था नहीं की सरकार और पुलिस की इस बड़ी लापरवाही का खामियाजा आज पत्रकारों को अपनी जान देकर चुकाना पड रहा है।


 


 सवाल यह है कि क्यों आज तक देश की सरकारों ने पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं बनाया? क्यों देश का चौथा स्तंभ होने के बावजूद पत्रकार व पत्रकार के परिवार के लिए कोई राहत कोष नहीं बनाया गया? अब तक सरकार ने यह कदम नहीं उठाए हैं लेकिन अब जरूरत आन पड़ी है कि सरकार पत्रकारों के लिए पत्रकार सुरक्षा कानून बनाये पत्रकार व पत्रकार के परिवारों के लिए एक पत्रकार राहत कोष बनाया जाए, जिसमें पत्रकार की आक्समिक मृत्यु या दुर्घटना होने पर परिवार को तुरंत आर्थिक सहयोग मिल सके। पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या से प्रशासन को यह सबक लेना बहुत जरुरी है कि अगर पत्रकार अपनी जान- माल का किसी से खतरा बताता है तो उसे गंभीरता से लेकर कारवाई की जाए सभी पत्रकारों का, सामाजिक व राजनीतिक लोगों का यह फर्ज बनता है कि पत्रकारों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए पत्रकारों के हितों के लिए अपनी आवाज बुलंद कर सरकार से पत्रकार सुरक्षा कानून बनवाने की मांग करते हुये आगे आये, जिससे एक पत्रकार भयभीत होकर नहीं, बल्कि निडर होकर अपनी कलम को मजबूती दे सके।


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